इंदौर के विश्राम घाट से लौटा हूँ किसी अपने को अंतिम विदाई देकर।जो देख कर आया हूँ वो बहुत भयावह है। हर दस से पंद्रह मिनट में एक सायरन बजाता हुआ वाहन आ रहा था। कोई परिजन साथ नहीं, बस नगर निगम के चार कर्मचारी पीपीई किट में पैक किया हुआ शरीर ला रहे हैं, विश्राम घाट के कर्मचारी दौड़ पड़ते हैं व्यवस्था में। वही लोग मिलकर सब कर रहे हैं। कुछ परिजन बहुत दूर खड़े देख रहे थे भीगी आँखों से।एक लड़की शायद ज़िद करके आ गई और काँपते हाथों से अग्नि प्रदान की अपने परिजन को। दाह के लिए टोकन बाँटे जा रहे हैं उसी अनुसार आना पड़ रहा है। सुना कि तीन सौ शव प्रतीक्षा में हैं संस्कार के लिए।हर तरफ़ बस अग्नि दिखाई दे रही थी।सलाम इंदौर को कि यहाँ विश्राम घाट पर क्या व्यवस्था की है लोगों ने, नगर निगम ने, और निजी संस्थाओं ने। गर्व हुआ उन मित्रों पर जो इंदौर में रहते हैं। सलाम उन विश्राम घाट के कर्मचारियों को जो अनथक संस्कार कर रहे हैं। हमने चिकित्सा, पुलिस सबका सम्मान किया, किंतु इन विश्राम घाट कर्मियों पर हमारी नज़र नहीं जाती। जानी चाहिए। वे दस बारह लोग किस तरह से काम कर रहे हैं, देख कर इंसानियत पर भरोसा बढ़ गया। सुनिए स्थिति उससे कहीं ज़्यादा भयावह है जितना आप समझ रहे हैं। ये हमारी ही अंदर की नकारात्मकता है जो पलट के हम पर ही टूट पड़ी है। द्वेष, कलुष, ईगो, सब भूल जाइए, कम्प्यूटर शिक्षक हूँ इसलिए विश्राम घाट पर बैठे हुए ये लगा कि शायद बनाने वाले ने रीबूट कर दिया है सिस्टम को। प्रेम ही बचाएगा अब हमें, हम सबको।